आधुनिकता की दौड़ में सिमट रही परंपराएं, सावन में न दिख रहे झूले और न ही सुनाई दे रही कजरी परंपरा व संस्कृति को बचाने में गांव की भूमिका महत्वपूर्ण
फरेंदा,महराजगंज सावन का जिक्र आते ही दिलो-दिमाग में रिमझिम फुहार ,शीतल मंद हवा और पेड़ की डाल पर पड़ा झूला झूलती युवतियां और बच्चे । साथ ही मधुर स्वरों में कजरी के बोल मगर यह सब अब बीते जमाने की बात हो गई है ।शहर की बात छोड़िए अब तो गांव में भी सावन के महीने में ऐसा दृश्य दिखना दुर्लभ हो गया है।सावन महीने का मौसम हर किसी को अपने तरफ आकर्षित कर लेता है। चारों तरफ हरियाली, ठंडी-ठंडी बयार और बगीचों में पेड़ों पर बनाए गए झूले अपनी ओर खींच लेते हैं। क्षेत्र के अधिकांश बाग बगीचों में नव युवतियों व महिलाओं द्वारा पेड़ों पर झूला डाला गया होता था। जहां वह झूला झूलते व कजरी गाते नजर आती थी। झूलो पर महिलाओं द्वारा गाए गीत सावन का महीना, झुलावे चित चोर, धीरे झूलो राधे पवन करे शोर। मनवा घबराये मोरा बहे पूरवैया, झूला डाला है नीचे कदम्ब की छैयां। झालू झूले रे कदम की डाली जैसी अनेक गीतों से वातावरण गूंजायमान हो जाया करता था। वहीं कुछ युवतियां अपने बारी का इंतजार करने के साथ महिलाओं द्वारा झूले पर गाए जा रहे गीत पर सुर से सुर मिलाती थी। बाग की हरियाली व महिलाओं का मधुर स्वर लोगों का ध्यान आकर्षण कर लेता था। इस दौरान गाये जाने वाले गीत मन को सुकून देने वाला होता था। महिलाओं और युवतियों ने बताया कि सावन माह से प्रेम बढ़ाने के साथ प्रकृति के निकट जाने व उसकी हरियाली बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है। गांव की बुजुर्ग महिलाओं से बात करने पर उन्होंने बताया कि सावन माह में कजरी की अलग पहचान होती थी लेकिन सावन का तीसरा सोमवार भी बीत गया अब मैं कहीं पर झूला दिखाई देता है ना कहीं कजरी गीतों की गूंज सुनाई देती है अपनी परंपराओं को लोग भूलते जा रहे हैं समाज में तमाम विकृतियां उत्पन्न हो रही हैं सावन में काली घटाओं के बीच गाए जाने वाले इस राग पर आधुनिकता के काले बादल छा गए हैं। गांव की बुजुर्ग महिला रूपा ने बताया की सावन के महीने में गांव की बेटियां अपने मायके आती थी। बारिश के बाद हल्की हल्की बूदों के बीच ही घर से निकल कर झूले झूलती थी। इस दौरान सखियों को सुख-दुख बांटने का अवसर मिलता था लड़कियां साथ बैठकर मेहंदी लगाती थी बच्चों को भी झूले पढ़ने का इंतजार होता था। वहीं अब यह सारी बातें गांवों में बीते दिनों के किस्से कहानियां बनती नजर आ रही है। हरियाली तीज की परंपरा धीरे धीरे कम होती जा रही है और इसी के साथ उस दौरान गाए जाने वाले गीत भी। सावन महीने के बारिश का अंदाज ही अलग हुआ करता है। घंटों लगातार रिमझिम बारिश की फुहार अब नहीं होती हैं। अब तेज बारिश होती है और फिर थम जाती है इसका प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है।