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आधुनिकता की चकाचौंध मे गुम हो रही है कुम्हारों की कला। त्योहारों में चलते है कुम्हारों की चाक

आई एम खान


बृजमनगंज

विकास खण्ड बृजमनगंज के फुलवरिया, पिपरी,धंगरहिया व
धानी ढाला बृजमनगंज ,
समेत आदि गांवों के कुम्हारो को दीपावली के पर्व पर हजारों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी मे आज भी अंधेरा ही अंधेरा हैे। आधुनिकता की चकाचौंध ने कुम्हारों के सामने जीवन यापन का संकट खड़ा कर दिया हैे। हाड़तोड़ मेहनत व अपनी कला के चलते मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को आज दो वक्त की रोटी के लिए परेशान होना पड रहा हैे। दीपावली के समय जो कुम्हार दम भरने की फुरसत नहीं पाते थे वही आज मिट्टी के चंद दीये बनाकर आस-पास के गाँव व बाजारों मे बेचने के लिए जाते है। वहाँ भी पूरे दीये बिक जाये इस बात की आशंका बनी रहती हैे। बाजार मे दीयों की जगह आधुनिक तरह की तमाम रंग बिरंगी बिजली की झालरों ने ले लिया हैे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के सामने समस्या ही समस्या मुँह बाए खड़ी हैे। गोल-गोल घूमते पत्थर के चाक पर मिट्टी के दीये बनाते इन कुम्हारों की अंगुलियों मे जो कला है वह शायद ही दूसरे लोगों मे होे घूमते चाक पर मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों की याद सिर्फ दीपावली आने से पहले हर शख्स को आ जाती हैे। तालाबों से मिट्टी लाकर उन्हे सुखाना,सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छनना और उसके बाद गीली कर चाक पर रख तरह तरह के बर्तन व दीये बनाना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम हैे। इसी हुनर के चलते कुम्हारों के परिवार का भरण पोषण होता हैे।पत्थर के चाक पर गीली मिट्टी को आकार देने वाले कुम्हारो के हाथों की उंगलियों मे मानों जादू होता हैे। देखते ही देखते मिट्टी को आकार देना इनका पुश्तैनी काम अब इन्हे नहीं भा रहा है। क्योंकि बाजारों मे अब बिजली की झालरों के साथ पेपर कप,और प्लेट की भरमार हो गई हैे। चाय की दुकान से लेकर मीठे पकवानों और दुकानों एंव शादी ब्याह में पेपर कप, गिलास,और प्लेट ने जगह बना लिया हैे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को दिन भर मेहनत के बाद चंद रूपये ही हांथ मे आ पाते हैे। एक जमाना था जब दीपों का त्योहार दीपावली आती थी तो कुमहरों की दिनचर्या ही बदल जाती थीे। दीपावली आने से महीनों पहले कुम्हार पूरे परिवार के साथ मिलकर दीये तैयार करने मी जुट जाते थे कुम्हारों को साल भर रोशनी के पर्व का इंतजार रहता था। यही त्योहार उनकी मेहनत के बदले उन्हे खुशियाँ देता था। सूर्यभान, सुनील, प्रदीप, सुनील,राम बृक्ष, आदि ने बताया कि
दीये बनाने से जो कमाई होती थी उससे साल भर पूरे परिवार का खर्च आराम से चलता था समय बदला और हर कोई आधुनिकता के रंग मे रंगने लगे। आधुनिकता की सबसे बड़ी मार यदि किसी को पड़ी है तो वह कुम्हार ही हैे। मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाकर जीवन यापन करने वाले कुम्हारों का पुश्तैनी काम अब मंदा पद गया हैे।आधुनिक बाजार मे अब कागज व दूसरी चकाचौंध करने वाले सामानों ने ले लिया हैे। दीयों की जगह अब रंग बिरंगी झालरों से लोगों के घर रोशन हो रहे हैे इतना सब होने के बाद भी कुम्हार दीपावली के समय याद जरूर आते हैे। 

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